Friday, May 25, 2007

अंधानुकरण

वह सड़क

जहाँ भागम भाग

रूकती ना थी।

कोई शै किसी दूसरे के लिए

झुकती ना थी।



एक दिन उसी सड़क पर

एक अन्धा

सड़क पार करने की चाहत में

बार-बार पुकार रहा था-

"कोई सड़क पार करा दो"

लेकिन उस शोर में

उसकी आवाज दब जाती थी।

उस अन्धे की आवाज

किसी को ना भाती थी।



तभी किसी का हाथ

उसके हाथ से टकराया

उसने झट उसका हाथ

अपनें हाथों मे थाम लिया।

फिर दोनों ने

वह रस्ता पार किया।



अन्धे ने कहा-

"बहुत धन्यवाद तुम्हारा"

"तुमने सड़क पार करा दी"

वह व्यक्ति हँस कर बोला-

"धन्यवाद तो मै तुम्हें कहना चाहता हूँ"

"तुमने मेरा हाथ थामा"

"मै भी एक अन्धा हूँ।"

मुझे तुम्हारा सहारा मिला

तभी तो आज यह गुल खिला।



आज एक अन्धा

दूसरे अन्धें को सड़क पार कराता है।

तभी तो कोई अपनी मंजिल तक

पहुँच नही पाता है।

9 comments:

  1. मुझे यह पंक्तियां पसंद आयीं -दीपक भारतदीप
    आज एक अन्धा

    दूसरे अन्धें को सड़क पार कराता है।

    तभी तो कोई अपनी मंजिल तक

    पहुँच नही पाता है।

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  2. परमजीतजी.

    बहुत खूबसूरती से लिखा है

    आज एक अन्धा

    दूसरे अन्धें को सड़क पार कराता है।

    तभी तो कोई अपनी मंजिल तक

    पहुँच नही पाता है।

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  3. "आज एक अन्धा

    दूसरे अन्धें को सड़क पार कराता है।"

    कहीँ ये आंखों वाले अंधों पर व्यंग्य तो नही....?

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  4. विकास जी आप ठीक सोच रहे हैं।

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  5. बहुत खूब. चुभती हुई रचना है.

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  6. परमजीतजी, बहुत बढ़िया।

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  7. सटीक प्रहार है आज के समाज पर ,
    अन्य लोगों की तरह मूझे भी अन्तिम पंक्तियां बहुत ही उत्तम लगी।

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  8. सटीक और यथार्थ
    पर अच्छा है की अँधा ही अँधा को रास्ता पार करवाये
    कम से कम रास्ता पार तो होगा

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  9. अंधेर नागरी, अँधा राजा,
    सब आँखों वाले, पर न दिखता कोई बन्दा,
    सब अंधे! रब अंधा!
    संसार है एक गोरखधंधा!


    बहुत ख़ूब! कटाक्क्ष बहुत पैना है ।

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