Monday, July 30, 2007

समीर-संदेसा

जरूर पढे़ ढंढोरची का चिट्ठा पर किलकाएं ।

सच कैसे कहूँ ?

नोट- इस कार्टून को किसी की भावनाओं को आहत करने के लिए नही बनाया गया है।यदि किसी की भावनाओं को इस से ठेस पहुँचती है तो मैं उन से क्षमा चाहूँगा।


\kiyaa chup rahoon?\

तुम कितनी प्यारी हो




पहले
बचपन से
किशोर हुआ
अब आ चुकी है
जवानी ।

तुम सदा सुनाती रही
मुझ को
रोज नयी
कहानी ।

तुम कितनी प्यारी हो
नानी ।

आज जब मैनें चाहा
उँडेलू तुझ पर जो
प्यार तूने मुझे
जीवन भर दिया ।


तेरे हाथों का
कोमल स्पर्श
जिस को मैनें हर पल
महसूस किया ।

अनायास क्यूँ रूठी
मुझ से
खुद भी
बन गई कहानी।

तुम कितनी प्यारी थी
नानी।


वह जो मुझ को
अपनी मीठी-सी बोली में
कभी लोरी सुनाती
मेरे ही बचपन को
मुझको ही
कहानी बना कर
अब तक थी सुनाती


अब यादों मे बस कर
अमर हो गई
मेरे भीतर
एक महक बो गई


आज भी अक्सर
सपनों में आती है
वैसे ही
लोरी गाती है

आज भी
सुनाई देती है
उस की बानी


तुम कितनी प्यारी हो
नानी।

तुम कितनी प्यारी हो
नानी।

Sunday, July 29, 2007

समीर जन्मोत्सव

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समीर जन्मोत्सव के लिए ढंढोरची का चिट्ठा पर किल्काएं।

मदद करो है चिटठाकारों







मुक्तक-माला-६

जल कर बाती नें जब अंधेरा निगल लि्या ।
अंधियारों में भट्के राही को राह मिली ।
शूलों की चुभन चुम्बन समझ ने वालों को,
ऐसा लगा,शूलों पर रहकर कलि खिली।
*****************************

क्यूँ तमन्ना है की किसी का साथ मिले ।
इक प्यारा-सा यार हो हमारे साथ चले ।
किस के होते हैं यहाँ ख्वाब पूरे,
हम तो यूँ ही इन्तजार में सारी रात जले।
***************************
मैं हर दाग मिटाने की सोचता हूँ
गम को बहार बनाने की सोचता हूँ
शभ के अंधेरे में खो ना जाए वादे,
वादों को लोहा बनानें की सोचता हूँ।
**********************
***********
*****

Saturday, July 28, 2007

कृपया मेरी समस्या निदान करें

पता नही आज कल क्या हो रहा है।मुझे अपनी पोस्ट ब्लोग पर पब्लिश करने से पहले तो वर्ड वैरिफिकेश्न करना पड़ता है। लेकिन उस के बाद जब में पोस्ट को सेव नाउ करता हूँ तो पोस्ट सेव होने की जगह एरर दीखाने लगती है।मै तो समझ नही पा रहा कि क्या करूँ? कैसे इस परेशानी को दूर करूँ।इसी लिए यह सम्स्या मै यहाँ रख रहा हूँ। ताकि तकनीकी जानकार मेरी मदद करने की कृपा करें।मुझे अभी भी यह पता नही की मेरी यह पोस्ट भी आप तक पहुँच पाएगी या नही।अगर मेरी यह पोस्ट आप तक पहुँचती है तो मेरी समस्या का हल आप टिप्पणीयों के द्वारा जरूर बताएं।
शायद यह सपम की समस्या हो ।मूझे इस बारे में भी कुछ नही पता। कृपया मदद करें।मै आप का बहुत आभारी रहूँगा।
धन्यवाद।
एक परेशान ब्लोगर(चिटठाकार)
परमजीत बाली

Friday, July 27, 2007

निरूत्तर(क्षणिका)


आज

सभी अपनी-अपनी

टूटी नौकाएं

खेते हैं

इसी लिए

हर प्रश्न का उत्तर

एक नये प्रश्न से

देते हैं।

Wednesday, July 25, 2007

मुक्तक-माला-५

पल में बदल जाते हैं चेहरों के रंग यहाँ ।
कल जो अपने थे , तलाशे उन्हें अब कहाँ।
बीती बातें हैं , दिलसे दिलको अब राह हुई,
अब सबने बसा लिए हैं अपने-अपने जहां।
तुमको नही गवारा, जमाना तुम्हें बदले।
अभिलाषाएं तुम्हारी, कैसे अब सम्भलें।
रोवोगे, तो भी तुम्हें, देखता है कौन,
हिरन ने किए कब किसी शेर पर हमलें।

अपने को ख्ररा कह दूँ,तुम को क्या कहूँ।
पानी तो है पानी, रंग उस मे क्या भँरू।
आकाश हो जैसा वही तो रंग दिखेगा।
चलना ही नियति है मंजिलका क्या करूँ।
अब फूल की सुरभि किसी एक की नही।
हरिक को अंक लेकर, उसकी महक बही।
कोसो ना भँवरें को,उसका कसूर क्या,
काँटोंमें बिधके मरना भाग्य है यही।

Tuesday, July 24, 2007

बरखा


काली बदरिया घिरी

मेघ गर्जनें लगे

बिजलियाँ की चमक देख

नाचे मन मोर हो।

लहराती बल खाती

तरूवर की डालीयाँ

टप-टप टपकता पानी

गाए मेघ राग ज्यों।

बरखा बहार है

सावन फुहार हो

याद कर रहे सभी

अपने-अपने प्यार को।

कागज की कश्तियों की

होड़ शुरू हो गई

बाल कि्लकारियों का

चारों दिश शोर हो।

उछाले पैरों से पानी

गडों पर जोर हो

फिसल-फिसल गिरते

अपने पे हँस-हँस हो।

छातो का काम क्या

पहली फुहार है

स्वागत करो मनवा

बरखा बहार को।

बरखा बहार है

सावन फुहार हो

याद कर रहे सभी

अपने-अपने प्यार को।

Monday, July 23, 2007

आत्म-मंथन



अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।

मेरे भीतर की काइ में
बहुत रेंगते कीट-पतंगें
सूखे वृक्ष, झाड़, कटीले,
जंगल के सब जीव भरे हैं
सीलन बदबू भरी पड़ी जो
उसको पहले साफ करूँगा।

अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।

होनें, ना होनें से मेरे,
उनको फरक कहाँ पड़ता है।
गीत गाँऊ तभी संग उनका
मुझको तो अक्सर मिलता है।
लेकिन फिर टूटे पंखों संग
उड़ने का प्रयास करूँगा।

अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।

समता को भी अर्थहीन कर
केवल चलनें की अभिलाषा
सब से आगे माँग रहे जो
क्या ये संग, मुझको भाता है।
फिर भी उनका साथ चाहिए,
बिन दुल्हन के रास करूँगा।

अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।

भीतर के कोलाहल का भय़
सबके भीतर ही बैठा है।
लेकिन स्वीकारे कोई कैसे
मन तो सबका ही ऐठा है।
अपनी ऐंठन को कूट-काट कर
फूलो-सा आभास धरूँगा।

अपने घर की दीवारो के
धब्बें तो पहले मिट जाएं
फिर बाहर की दीवारों को
धोनें का प्रयास करूँगा।

Saturday, July 21, 2007

हर मोहल्ले में छुपा इक डोन है

नोट- यह रचना चीख़ !! लेख से प्रभावित हो कर लिखी गई है। उसे अवश्य पढ़ें।

चीख़ !! को सुनता यहाँ पर कौन है
झूझता निजता से इस लिए मौन है
मर चुकी इन्सान मे इन्सानियत
हर मोहल्ले मे छुपा इक डोन है।


आँसू आँखों में दे गई, ये दास्तां
कौन उनकी अस्मतो को ढाँपता
ताकते हैं मूँह इक दूजे का हम
काश! ऊपर से जरा तू झाँकता।

क्या ये सच है? तू ही कण-कण मे छुपा
पत्ता तुझ बिन हिल कहीं सकता नहीं
फिर यहाँ जो कुछ दिखाई दे रहा
जिम्मेवार बातों का यहाँ, फिर कौन है?

हर मोहल्ले में छुपा इक डोन है।

पंच परमेश्वर, कहाँ पर खो गए ?
आसन पंचेन्द्रियाँ जमा बैठी हुई।
आँचलों को तूफानों का खतरा नहीं
दी पनाह जिनको , उन्हीं पर लोन है।

हर मोहल्ले मे छुपा इक डोन है।

कर्ज तो चुकता करो ऐ आदमी
किस्तों मे ही हो भले अदायगी
मर रही तिल-तिल तुझे दिखता नही
इन्सान है या जानवर, तू कौन है?

हर मोहल्ले में छुपा इक डोन है।

Friday, July 20, 2007

कौन कहाँ से आया है

कौन कहाँ से आया है ?
कौन कहाँ पर जाएगा ?
जिसने बनाई दुनिया सारी,
उत्तर वही दे पाएगा।

आस का पंछी तन्हा उड़ता
काली अंधियारी हैं रातें
दिशा ज्ञान नही है कोई
रूकती नही फिर भी ये बातें
मुँह में आस का तिनका लेकर
दूर कहीं पर ठौर तलाशे
उड़ते रहना, नियति इसकी
ठौर कहाँ ये पाएगा ?


कौन कहाँ से आया है ?
कौन कहाँ पर जाएगा ?
जिसने बनाई दुनिया सारी,
उत्तर वही दे पाएगा।


इस नगरी में बैठके सोचा
घर आँगन फुलवारी हैं,
सपनों की दुनिया है अपनी
सपनों-सी ही बाड़ी हैं।
ऊँचे-ऊँचे महल बना कर
अपनी आँखों को भरमाएं।
खुद से जनमा,हँसना-रोना
खुद को ही फिर गा के सुनाएं।
कैसे गीत सुनें कोई तेरा
वह तो अपना गाएगा।

कौन कहाँ से आया है ?
कौन कहाँ पर जाएगा ?
जिसने बनाई दुनिया सारी,
उत्तर वही दे पाएगा।

जिसको साथी मान रहा तू
वह तो अपनी धुन मे चलता।
मन के प्रेम को ढूँढ रहा तू
यहाँ प्रेम बस तन का फलता।
इस बगिया के मालिक सब हैं
महक सभी के लिए बहेगी।
यह तो सृष्टी का इक सच है
कैसे झुठला पाएगा।


कौन कहाँ से आया है ?
कौन कहाँ पर जाएगा ?
जिसने बनाई दुनिया सारी,
उत्तर वही दे पाएगा।

Wednesday, July 18, 2007

सच किस को भाता है


सच किसको भाता है?
इस का किससे नाता है?
प्रश्न डोह रहा कब से ना जानें
मन समझ नही पाता है।
जो भट्क रहे अंधियारों मे
अपने ही चौबारों मे
बडे़-बड़े सपनो को लेकर
भीड़ के साथ मजबूर हुए
उन्हें विरोध नही भाता है।
सच किसको भाता है?
इस का किससे नाता है?
प्रश्न डोह रहा कब से ना जानें
मन समझ नही पाता है।

मेरा सच तेरा ना होगा
तेरा सच मेरा ना होगा
अपनी-अपनी सीमाएं हैं
अपनी-अपनी आशाएं हैं
फिर भी सच गाता है।

सच किसको भाता है?
इस का किससे नाता है?
प्रश्न डोह रहा कब से ना जानें
मन समझ नही पाता है।

झूठ खड़ा रह्ता वैसाखी पर
सच के दोनों पाँव नही हैं
सच तन्हाई में जीता है
झूठ के दसियों गाँव बसे हैं
यही गड़बड़ झाला है।

सच किसको भाता है?
इस का किससे नाता है?
प्रश्न डोह रहा कब से ना जानें
मन समझ नही पाता है।

आज का सच वही मन मानें
जो तेरे सपनें ना तोड़ें
भले यहाँ अपनोंसे मुख मोड़ें
हरिक प्याले मे यही हाला है।
ना मालूम किसने डाला है।

सच किसको भाता है?
इस का किससे नाता है?
प्रश्न डोह रहा कब से ना जानें
मन समझ नही पाता है।

खोज इसी ने भटकाया है।
सच को वेदों ने गाया है
सच को बापू ने समझाया है
अपने-अपनें तर्क सभी के
सब के पास यही छाता है।

सच किसको भाता है?
इस का किससे नाता है?
प्रश्न डोह रहा कब से ना जानें
मन समझ नही पाता है।

Tuesday, July 17, 2007

अकेला

हर चीज़ बिखर जाती है यहाँ
इस वक्त की जालिम ठोकर से
तुम झरना अपनें को मानों
पर रहते हो बस पोखर से।



जो एक जगह पर खड़ा-खड़ा
मोसम की मार से सूख गया
क्षण-भर मे खोता है खुद को
जब साँस का डोरा टूट गया।


फिर क्यूँ ना तज नफरत को इस
दिल मे ये प्यार सजाते नही
इन सपनों को नयनों मे भर
इक प्यार की दुनिया बसाते नही।


चुपचाप से क्यूँ यूँ बैठे हो
संग मेरे तुम क्यों गाते नही
ये वक्त गुजर जाए ना कहीं
बीते पल लौट के आते नही ।


मै भी ना यहाँ कल होऊंगा
तुम भी ना यहाँ रह पाऒगे
मिलकर बैठे तो झूम लेगें
व्यथित अकेले गाऒगे।

Sunday, July 15, 2007

नया सवेरा

अनायास होता है

सब कुछ
हम तकते रह जाते हैं।


कोई अन्धेरा

कहीं से निकल
हम पर लिपट जाता है।

स्वयं से जन्मा ये अन्धकार
अब स्वयं को ही डराता है।

मेरे मन
तुम अब अन्धेरे की बात

मत करना।
ये शनै-शनै मिट जाएगा।
क्यूँकि कोई रात
कितनी भी काली या भयानक हो
रात के बाद
नया सवेरा आएगा ।

Saturday, July 14, 2007

मुक्तक-माला-१

क्या ये है जिन्दगी, राह फूल खारों की।
बनते बिगड़ते कारवाँ, ओ-बहारों की।
खेलती है कश्ती मोहब्बत मे तूफां से,
उम्मीद बनी रहती जहाँ किनारो की।
स्याह राहों पे गुजर जानें दो मुझको।
तन्हाइयों में ये अक्सर मुकाम आएगा।
लौ कहाँ से लाऊं,दिले खाक मुसाफिर,
आधी जिन्दगी का हिस्सा,अंधेरे में जाएगा।
जलकर बाती ने जब, अंधेरा निगल लिआ।
अंधियारे मे भटके राही को राह मिली।
शूलों की चुभन,चुम्बन समझनें वालो को,
ऎसा लगा,शूलों पर रहकर कलि खिली।

Wednesday, July 11, 2007

जीवन-चक्र

सुबह
आँखें खोली
किसी ने



एक वृत
मेरे आगमन से
पूर्व बनाया
और मुझ से कहा-
इस वृत की रेखा पर दोडों
और इस का अन्त खोजों ।



अब मैं इस वृत की रेखा पर
और मोसम
मुझ पर दोड़ता है ।