Thursday, September 6, 2007

ठहराव


कब से देख रहा हूँ ।
टूटन ही टूटन है ।
सब धीरे-धीरे बिखरा है ।
एंकाकीपन बस निखरा है ।
भीतर कुछ भी नही बचा है ।
लेकिन शोर बहुत है बाहर के परिवर्तन का।

बन गई हैं ऊँची-ऊँची मीनारें,
हरिक घर में हैं,
मन बहलाव के साधन,
क्यूँकि आपस का विशवास
मर चुका है तड़प-तड़प कर
जैसा मरना हो जल बिन मछली का।

अब रातों को माँ लोरी नही सुनाती
दादी तो कभी नजर नही आती
पापा हरदम थके-थके से
अपने ही भीतर रहते गुम हैं
अक्सर माँ की आँखें दिखती नम हैं
जैसे प्रतिक्षा करता हो बादल बरसने का।

सब दोड़ रहे हैं दिशाविहीन,
पथ पर बस चलना सीखा है।
मंजिल की किस को चिन्ता है।
प्रतिस्पर्धा है आपस की
पराजय किसी को स्वीकार नही
क्यूँकि भीतर अब प्यार नही।

यही चित्र उभरा है अब जीवन का।



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6 comments:

  1. प्रतिस्पर्धा है आपस की
    पराजय किसी को स्वीकार नही
    मुख्य मुद्दा बस यही आकर खत्म हो जाता है...
    बहुत अच्छी रचना है परमजीत जी

    सुनीता(शानू)

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  2. सब दोड़ रहे हैं दिशाविहीन,
    पथ पर बस चलना सीखा है।
    मंजिल की किस को चिन्ता है।
    प्रतिस्पर्धा है आपस की
    पराजय किसी को स्वीकार नही
    क्यूँकि भीतर अब प्यार नही।
    ----------------
    आपकी पूरी कविता भावुकता का बोध कराती है।
    दीपक भारत दीप

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  3. सब दोड़ रहे हैं दिशाविहीन,
    पथ पर बस चलना सीखा है।

    --बहुत खूब भाव हैं भाई..अच्छा लगा इस रचना को पढ़ना.

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  4. भीतर कुछ भी नही बचा है ।
    लेकिन शोर बहुत है बाहर के परिवर्तन का।

    सशक्त अभिव्यक्ति

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  5. सब दोड़ रहे हैं दिशाविहीन,
    पथ पर बस चलना सीखा है।
    मंजिल की किस को चिन्ता है।
    प्रतिस्पर्धा है आपस की
    पराजय किसी को स्वीकार नही
    क्यूँकि भीतर अब प्यार नही।

    यही चित्र उभरा है अब जीवन का।
    बेहतरीन लाइनें

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  6. सच कह रहे हैं और यही जीवन हम सबको जीना है । क्यों न इसे थोड़ा सा बेहतर बना लें ?
    घुघूती बासूती

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