Wednesday, December 26, 2007

एक नयी सुबह का इंतजार

कब से देखता आ रहा हूँ

उन बुढ़ी आँखों में

पानी ही रहता है।

अपनी बहू की कहानी को

खमोशी से कहता है।



ठंड मे ठिठुरती,काँपती-सी,

अपने को फटी शाल से ढाँपती-सी,

लाचार-सी,अक्सर दिख जाती है।

लेकिन ना जानें क्यूँ

मुझे देख मुसकाती है।



लगता है जैसे वह

बहुत कुछ कहना चाहती है,

कह नही पाती।

उसकी कमजोर होती देह देख,

मुझे भी लगता है,

वह भर पेट नही खाती।



हर सुबह,

टूटी खटिया पर बैठी,

करती रहती है,

सूरज निकलने का इंतजार।

शायद कभी सुबह,

उस के लिए भी आएगी।

तब वह उस के साथ,

कहीं दूर निकल जाएगी।



सोचता हूँ,

क्या तब,

इस खाली खाट को देखकर,

उस बहू को कॊई

कहानी याद आएगी?

जो एक दिन,

फिर दोहराई जाएगी।

जब समय की मार से

वह भी हार जाएगी।



समय तो अपनी बात

सभी से कहता,रहता है।

लेकिन

कब से देखता आ रहा हूँ

उन बुढ़ी आँखों में

पानी ही रहता है।

Tuesday, December 25, 2007

आज की राजनिति पर कुछ विचार:क्षणिकाएं

१.
जो आदम खोर
अपने को दूसरों से
ज्यादा दयालू बताएगा।
वही तो
भ्रम में पड़ी जनता से
"यह" सम्मान पाएगा।
२.
जीतना और सम्मान पाना,
दोनो अलग बात हैं।
जीतने वाला,
साम दाम दंड भेद से ,
जीत जाएगा।
यदि वह संत नही,
शैतान है तो,
शैतान ही कहलागा।

Sunday, December 23, 2007

कमजोर आदमी

यह पलकें
सदा भीगी रहती हैं।
कभी धूँए से
कभी आग से,
कभी दर्द से।

अब कब और कैसे सूखेगा पानी?
कब खतम होगी यह कहानी?
"वो" भी इन से मुँह फैर बैठा है।
पता नही इन से क्यों ऐंठा है?

हरिक आदमी
अपनी ताकत इसी पर अजमाता है।
सताए हुए को और सताता है।

आज फिर
एक कहानी याद हो आई?
जो किसी ने थी सुनाई।

अर्जुन ने एक बार
जब वह वन में घूम रहे थे
श्रीकृष्ण के साथ ,
पूछा था-"भगवान!आप सताए हुए को क्यों सताते हो?"
"जब कि हमेशा उसे अपना बताते हो।"

कृष्ण बोले-"अभी बताता हूँ.."
"पहले मेरे बैठनें को एक ईट ले आओ।
"अर्जुन तुरन्त चल दिया।
लेकिन बहुत देर बाद ईंट ले कर लौटा।
कृष्ण ने उसे टोका
और पूछा-"इतनी देर क्यों लगा दी?"
"पास में ही तो दो कूँएं थे वही से क्यों नही उखाड़ ली?"
अर्जुन बोला-"प्रभू! वह टूटे नही थे,ईट कैसे निकालता?"
कृष्ण बोले-"मै भी तो इसी तरह सॄष्टी को हूँ संम्भालता।"

टूटे को सभी और तोड़ते हैं।
मजबूत के साथ अपने को जोड़ते हैं।
ऐसे में,
कैसे कमजोर आदमी को
संम्बल ,सहारा मिलेगा।
क्या उस का चहरा भी
कभी खिलेगा?

Saturday, December 22, 2007

मैं अफगानिस्तानी नही भारतीय हूँ

आप का लेख पढ़ ने को आपका चिठठा देख रहा था। कि अचानक नजर नीचे गई तो अपना नाम देख कर चौंका! सोचा अरे! यह सब क्या कह रहे हैं...आप...काकेश जी और परमजीत बाली जी क्या आप अफगानिस्तान मे... लेकिन जब आप का वह लेख या कहूँ...आप द्वारा दी गई सूचना के आधार पर अपना ब्लोग किल्काया तो अपनी भूल का पता चला। आप का बहुत-बहुत धन्यवाद। मैनें इस ओर कभी ध्यान नही दिया था। यह सब गलती से हुआ है या यूँ कहे भूल से हुआ है.....उस के लिए सभी मित्रों से क्षमा चाहूँगा। मैंने भूल सुधार कर ली है। आप ने सचेत किया ।उस के लिए एक बार फिर धन्यवाद। मैं अफगानी नही भारतीय हूँ।

Friday, December 21, 2007

प्यार की भाषा

गरीब के आँसू,

कब किसी को दिखते हैं

मगर यह सच है,

यही मोती बिकते हैं।

कभी खबर बन कर

कभी बन कर तमाशा

बहुत अजीब है

इस दुनिया की

प्यार की भाषा।

मुक्तक-माला-९

१.
मिटता नही कहीं भी कुछ, बदलती बस सोच है।
आदमी का मन भटकता है वहाँ बहुत लोच है।
झूठ को मरना ही होगा, सत्य नही मर पाएगा,
पीढी बदले तो वो बदले,पहुँचें वही जहाँ मौज़ है।
२.
बदला समय, समय ने बदला क्या यही था आदमी।
छोटी-छोटी बात पर , हुआ बेलगाम आदमी।
मर गई शालीनता कहीं, मर गई इंन्सानियत,
खो के आपा, खा रहा है आदमी को आदमी।

Thursday, December 20, 2007

आज का सच

मरनें दो उसे!!!
जी कर भी क्या करेगा?
अपने को साबित करना
वह कब का भूल चुका।
सफेद कफन ओड़े
संवेदनाओं से हीन है,
संज्ञा से हीन है,
वह बहुत दीन है।

पतझड है चारों ओर
कहता बसंत छाया।
पंछी बिन पंख उड़ता
कहता आकाश पाया।
ना मालूम किस दुनिया में
बैठा है सपनें बुनता
सपनों को बुननें में
कितना तल्लीन है।
वह बहुत दीन है।

जिन्दा है रहना मुश्किल
चलना भी दूभर हुआ
कदम-कदम गिरता है
घायल है लहूलुहान हुआ
देखा -सुना सबनें
बजती जैसे भैसों के आगे
वही पुरानी बीन है।
वह बहुत दीन है।

Tuesday, December 18, 2007

इन्सान

भीतर का आदमी

बाहर आना नही चाहता।

क्यूँकि फरेब की दुनिया

उसे नही भाती।

यहाँ सच्चाई

नही मुस्कराती।



बाहर का आदमी

भीतर जाना नही चहता।

वहाँ उस का ओहदा

साथ नही जाता।

कोई भी उसे वहाँ

नजर नही आता।



ये दोनों आदमी

जिस दिन एक हो जाएंगें।

उस दिन हम इन्सान

कहलाएंगें।

एक सवाल....

हर रात
नया सपना
जन्म लेता है।
हर सुबह
वह अपना दम तोड़ देता है ।
अंधेरे और रोशनी की
इस लड़ाई में,
कौन जीता
यह दिखाई नही देता है।

फिर भी छूटता नही,
सपने बुनने का चलन।
एक की जगह
दूसरा ले लेता है।
बस बुनते रहो और टूटते हुए देखो,
जीवन क्या यही,
बस हमें देता है?

Monday, December 17, 2007

जब प्रेम ही वासना......

जब वासना ही प्रेम कहलाएंगी।
तब रिश्तों मे टूटन तो आएगी॥

किससे शिकायत करे आदमी,
जब धन आदमी की पहचान हो।
नंगे होनें में क्या शर्म है,
जब धन आदमी का ईमान हो।
इज्जत की रोटीयां जल गई,
जब चाहिए सभी को पकवान हो।

जब रहे दो-दो आदमी एक में,
आदमी की कैसे, पहचान हो।
जो अपनें लिए साधू बन गया
दूसरे के लिए, वही शैतान हो।
देख-देख मुझे आज यह है लग रहा
कही बदला हुआ ना भगवान हो।

अब ढूंढेगा प्यार यहाँ कहाँ,
बातें यह किताबों में रह जाएगी।
जब गरीब को भूख सताएगी
रो-रो के दुखड़ा सुनाएगी
जब वासना ही प्रेम कहलाएंगी।
तब रिश्तों मे टूटन तो आएगी॥