Tuesday, December 18, 2007

इन्सान

भीतर का आदमी

बाहर आना नही चाहता।

क्यूँकि फरेब की दुनिया

उसे नही भाती।

यहाँ सच्चाई

नही मुस्कराती।



बाहर का आदमी

भीतर जाना नही चहता।

वहाँ उस का ओहदा

साथ नही जाता।

कोई भी उसे वहाँ

नजर नही आता।



ये दोनों आदमी

जिस दिन एक हो जाएंगें।

उस दिन हम इन्सान

कहलाएंगें।

6 comments:

  1. बहुत बढ़िया बेहतरीन लिखते रहिए

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  2. great ek acha sach ..hum sabhi jee churatey hai aur ankhey meechey muskuratey hai

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  3. भाई बहुत सुंदर रचना बधाई.
    नीरज

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  4. बहुत भावनापूर्ण रचना
    दीपक भारतदीप

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  5. बहुत अच्छा है सर !! ख़याल बहुत ही अच्छा है. लेकिन वो दिन आयेगा कब सरकार ?? कब आयेगा वो दिन ??

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  6. अगर मालिक ने यहाँ तक की सोच दी है तो रास्ता भी दिखाएगा। जाना तो बाहर के व्यक्ति को ही भीतर है - वो भी बाहर का बाहर छोडकर।

    इस बार जब बंगला साहिब गया तो पंक्तियाँ लिखी थीं। भाव था -
    जिस तरह हाथी अंकुश के बस में है, उसी तरह मन को गुरू के चरणों में एकाग्र करो।

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