Saturday, March 22, 2008

होली खेलें कैसे



होली खेलें कैसे नंदलाल ,राधा रूठी रे।
पहले बनूँगी मैं नंदलाल, राधा रूठी रे।

नाची बहुत बंसी पे तेरी,मेरे कान्हा प्यारे।
अब चाहूँ बंसी मैं बजाऊं,नाचें कान्हा प्यारे।
तब चाहे मोहे रंग दे जितना,जैसे कहे मैं नाचूँ,
सदियों से नाच-नाच कर थक गए पैर हमारे।

होली खेले कैसे नंदलाल ,राधा रूठी रे।
पहले बनूँगी मैं नंदलाल, राधा रूठी रे।

मैं ग्वाला बन गाएं चराऊँ,पानी तुम भर लाना रे।
जमनामें नहाओ जब तुम,निवस्त्र तुम्हें सताऊँ रे।
लोक -लाज तज,सुन बंसी मेरी नंगे पाँवों आ जाना,
कैसा लगता कान्हा तब तुम्हे,हम को जरा बताओ रे।

होली खेले कैसे नंदलाल ,राधा रूठी रे।
पहले बनूँगी मैं नंदलाल, राधा रूठी रे।

राधा की इस माँग के कारन, कान्हा चुप-छुप जाए रे।
बड़े-बूढें राधा को बोलॆं ,उलटी गंगा ना, बहाओ रे।
पर राधा नही रूकनें वाली,ह्ठ कब किसनें छोड़ा है,
परमजीत अब कोई आके इन सब को समझाओ रे।


होली खेले कैसे नंदलाल ,राधा रूठी रे।
पहले बनूँगी मैं नंदलाल, राधा रूठी रे।

Thursday, March 20, 2008

वो जब याद आए बहुत याद आए......



सोच रहा था इस होली पर सभी कुछ ना कुछ लिख रहे हैं ।क्यूँ ना मैं भी कोई गीत लिखूँ । यही सोच कर कुछ लि्खना चाह रहा था।लेकिन समझ नही पा रहा था की क्या लिखूँ।पता नही कैसे पुरानें दिन याद आ गए।अपनें पुरानें दोस्तों की याद आनें लगी।.....वह भी क्या दिन थे जब होली के आनें से पहले ही यह तय हो जाता था कि इस बार हमारी टोली को कहाँ कहाँ धावा मारना है।किस से कैसे हिसाब चुकता करना है।होली के आते ही पिछली होली में जिनके हाथों अपनी बुरी गत बनी थी ,इस बार कैसे उन से बदला लेना है।बस यही प्लान बनते रह्ते थे।आज इसी लिए शायद होली के आनें पर मुझे उन की कमी खलनें लगी थी।उन की याद आते ही मैं गीत गुनगुनानें लगा।साथ ही साथ उसे लिखता भी जा रहा था।अभी मैनें चार लाईनें ही लिखी थी।.......मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे मेरे भीतर कोई और बैठा हुआ मेरे लिखे का किसी दूसरे रूप में उत्तर दे रहा है। इस लिए उस समय जो लिखते समय,दूसरी पंक्तियां मेरे भीतर आ रही थी,वह भी मैनें लिख ली।अब देखिए कैसे एक दर्द भरा गीत हास्य गीत बन गया। मुझे लगता है यह सब होली का असर है ,जिसनें मेरे भीतर ऐसे भाव पैदा कर दिए।.. ..अब आप वह गीत कैसा बना?....आप भी पढ़ें।


इस होली में रोएंगी आँखियाँ साथी मेरे पास नही।
होली के रंग बहुत हैं महँगें, पैसे मेरे पास नही।
याद में उनकी आँसू बहते,लौटेगें कभी,आस नही।
उधारी खा ,कोई कब लौटाता,ऐसा कोई इतिहास नही।
जिस रंगमें तुमनें रंगा था उस रंग को ना भूल सका,
मुफत खोर खा पी कर कब का, वह किस्सा ही भूल चुका,
अब दूजा कोई रंग चड़ेगा,मुझको ऐसी आस नही।
तुम क्यूँ बैठ ,होली पर रोते,रोनॆं की कोई बात नही,

***************************************************

इस होली में रोएंगी आँखियाँ साथी मेरे पास नही।
याद में उनकी आँसू बहते,लौटेगें कभी,आस नही।

जिस रंगमें तुमनें रंगा था उस रंग को ना भूल सका,
अब दूजा कोई रंग चड़ेगा,मुझको ऐसी आस नही।

***********************************************

होली के रंग बहुत हैं महँगें, पैसे मेरे पास नही।
उधारी खा ,कोई कब लौटाता,ऐसा कोई इतिहास नही।

मुफत खोर खा पी कर कब का, वह किस्सा ही भूल चुका,

तुम क्यूँ बैठ के होली पर रोते,रोनॆं की कोई बात नही।

************************************************


Sunday, March 16, 2008

अकेलापन



रात अंधेरी
मन डाले फेरी
दूर कही पर
फिर दिख रही है
पड़ी हुई इक
सपनों की ढेरी।

रूकता नही
पल भर भी
बींनने निकला है
बचपन कही
मिल जाए
मन फिर से
खिल जाए
लेकिन
इतनी अच्छी
कहाँ
किस्मत ये मेरी।

जैसे-जैसे मैं
हो रहा बूढा हूँ
फिर पीछे
लौटनें को
मन मेरा करता है
आहें, नित भरता है
जो पीछे छूटा था
वही तो
आगे है
ना जानें फिर भी
क्यूँ ये मन
भागे है
आदत है मेरी।

पल-पल में मेरे शब्द
अर्थ बदल जाते हैं
कल मेरे साथ थे
आज चिड़ाते हैं
सब समय का खेला है
जीवन को मैनें तो
ऐसे ही धकेला है
बिल्कुल अकेला है
कहानी
ये किस की है
तेरी या मेरी।

रात अंधेरी
मन डाले फेरी
दूर कही पर
फिर दिख रही है
पड़ी हुई इक
सपनों की ढेरी।

Friday, March 14, 2008

नकली दाँत

जब भी वह सामनें से गुजरते थे।
मुस्कराते हुए गुजरते थे।
उन की मुस्कराहट हमेशा मेरे मन को,
एक अजीब -सा सकून दे जाती थी।

ना जाने कितनें बरसो से
मैं उन्हें यूँ ही देख रहा हूँ
वह हर जगह
जहाँ भी वह टकराते थे,
मुस्कताते थे।

लेकिन एक दिन,
जब सड़क पार करते हुए,
मैं एक तेज जाती कार की चपेट में आ गया।
अंधेरा-सा मेरी आँखों मे छा गया।
मैं छिटक कर सड़्क के बीच पड़ा था।
वह फिर मुझे नजर आए
मुझे देख कर
फिर वैसे ही मुस्कराए।
और आगे चल दिए।

उस दिन मैं उन की
मुस्कराहट से बदहवास हुआ।
उन की मुस्कराहट के पीछे छुपे
नकली दाँतों का मुझे एहसास हुआ।

गजल



मुस्कराता-सा हरिक चेहरा यहाँ लगता है।
चहरे पर चेहरा यह, बहुत खूब फबता है।

हम रोज तेरी महफिल में आते थे मगर,
जिक्र हमारा हुआ हो कभी,नही लगता है।

जाम हर बार तुम्हीं थमाते थे, हाथों में,
कहीं मोहब्बत थी ये तुम्हारी, क्यूँ लगता है।

मुस्कराता-सा हरिक चहरा यहाँ लगता है।
चहरे पर चहरा यह, बहुत खूब फबता है।

दर्द दिल में छुपाए यूँ ही हम तो जीए जाएंगें,
इस जमानें का है दस्तूर यही ,क्यूँ लगता है।

नही ऐसा मिला कोई, जो कहे तुम्हारा है,
हरिक शख्स यहाँ अपनें लिए, जीता मरता है।

Monday, March 10, 2008

कोई बता दे......



धड़्कनें कुछ कह रही हैं आज तुमसे,
प्यार की दुनिया चलो फिर से बसा लें।
दुश्मनों ने जो उजाड़ा घर हमारा,
नींव कुछ गहरी करें,फिरसे बना लें।

ख्वाइशे हर शख्स करता हैं यहाँ पर,
पूरी कहाँ होती सभी की,यह बता दे।
सपनों को सजाना, तमन्ना सभी की,
रूकती नही क्यूँकर ,मुझको बता दे।

सहर हकीकत को ब्यां करता रहा है,
फिर क्यूँ शब में रहते हैं सपने सजाते।
आदमी फितरत कैसे छोडे अपनी,
तन्हाइयों में रहते हैं आँसू बहाते।

भूल जाओ उनको जो छोड़ जाते,
भूलते कैसे हैं ,हमको कोई बता दे।
कर सके जिस दिन,नयी वो सहर होगी
परमजीत ना कोई हमें वह दिन दिखा दे।



Sunday, March 9, 2008

ईश्वर का बेटा


दूर कहीं आसमान से
कोई शब्द बरसाता है।
अपनी मस्ती में वह
अक्सर गाता है।
उस के शब्द
धरा पर बिखर जाते हैं।
जिसे पीर पैंगंबर चुन-चुन कर
अपनी मरजी से सजाते हैं।
************************

उस दिन जब तुम
आसमान में बैठे
कुछ गा रहे थे
अपनी ही मस्ती में गुम
अपनें को ही अपना गीत
सुना रहे थे।
मैनें तुम्हारे शब्दों को
टूट कर धरती पर बिखरते देखा।
वह जहाँ भी गिरे
फूल बन-बन के खिले।
एक अजीब सी महक
उन से आ रही थी
जिसने मुझे ना मालूम कब
अपनी ओर खींचा।
अपने मोहपाश में भींचा।

इस लिए
मुझे वह जहाँ भी मिले

मैनें उन्हें चुन लिया
जैसा सही लगा
उन्हें बुन लिया।

आज वही शब्द
मुझे मुँह चिढाते है।
ना मालूम
क्यूँ मुझे डराते हैं?

मैंने तो एक गीत
लिखने का प्रयास किया था
सभी पाए रोशनी
इसी लिए जलाया
एक प्रेम का दीया था।

मैं कहाँ जानता था
मेरे दीये से ये
दूजों के घर जलाएगें।
मेरे शब्दों की आड़ में
इक-दूजें को खाएगें।


आज मेरी तरह
वह गीत को सजाने वाला
कही अकेला बैठा
रो रहा होगा।
"काश!मेरा लिखा गीत मिट जाए"
बाँट जोह रहा होगा
**************************

उन्होनें जो सजाया
सभी एक गीत के स्वर हैं
लिखने का ढंग भले
अलग- अलग होगा,
लेकिन जिन्हें वे सुनाना चाहते थे
उन्होनें समझनें मे भूल की
शायद हरिक को
उसके अंह ने टोका।
***************************

इस लिए मैं अब
पीर,पैगंबरों के सजाए गीत
नही गाता।
बस!अब यही है
मुझे भाता।


जब भी कोई गीत गाता है
सुन लेता हूँ ,
क्यूँकि जान चुका हूँ
इन सब की तरह ,
मैं भी तेरा
बेटा ही हूँ।


Thursday, March 6, 2008

आँधियां और मैं



टूटनें दो पत्तों को इन आँधियों से
आँधियों पर जोर कब किसका चला है?

जिन पत्तों की डंडियां, कमजोर, यारों,
टूटकर गिर जाएं, इस में ही भला है।

कब तक बचाएगा कोई आँधियों से,
हरिक अपनें को बचानें में लगा है।

कौन किसी का साथ दे सकता यहाँ है,
भाग्य मे टूटना जिसके बँधा है ।


फैलती ज्वाला की लपटें हर कहीं पर,
सूखे पत्ते ,पेड़ ही इस में जलेगें।

आज जो नव वृक्ष इन पर हँस रहें हैं,
वो भी कल धूल में यूँहीं मिलेगें।

व्यथित क्यूँ कर ,परमजीत देख इनको
सृष्टि नें विधिविधान यूँ ही रचा है।

टूटनें दो पत्तों को इन आँधियों से ,
आँधियों पर जोर कब किसका चला है?


Wednesday, March 5, 2008

संभल जाओ



उजड ना जाए फिर से कहीं ये गुलशन मेरा
लगाओ आग ना रहता है यहाँ दिलवर मेरा
बहुत गँवा के इसे यारो !हमनें पाया है,
चिराग घर का ही ,जला ना दे ,घर मेरा।

कभी भाषा के नाम पर, लड़-लड़ मरते हैं
कभी मजहब की आग में हम जलते हैं
ऐसी आग जो भड़्काते हैं, उन्हें पहचानों,
तुम्हें मोहरा बना वो अपनी चाल चलते हैं।


०००००००००००००००००००
राज करने की नीति
इस पर जो चलते हैं
उन्हें
किससे होती है प्रीति?

अपनें फायदे के लिए
सभी कुछ दाँव पर लगाते हैं
कुर्सीयों के मोह में
आदमीयों को खाते हैं।

"एक बिहारी सो बीमारी"
कैसी बात करते हैं?
नेताओं की करनी का फल
भाई के सिर मड़ते हैं।

कौन-सी जगह है वो
जहाँ बहा नही पसीना है
फुटपाथों पर सोता है,
हक यह भी अब, छीना है।

समस्या यहाँ जो भी है
नेताओं की करनी है
जिस की कीमत हमतुम को
अपनी जां से भरनी है।

अपनें ही देश में
आजादी हमें कहाँ है?
कश्मीर कहने को
वैसे तो अपना है।
मेरा घर होगा वहाँ
देखा, बस सपना है।

छुट-पुट-सी बातों में
सार कुछ ना पाओगे
अपना जो बीजा है
खुद ही अब खाओगे।

Tuesday, March 4, 2008

होई है वही जो राम रच राखी



चल रहे हैं सब मगर,
दूसरे पर है नजर,
कौन जानें रास्ते में,
साथ तेरा छोड़ दे।
जिस का साथ तूनें लिआ,
उसीनें तुझे गम ये दिया,
जा चुका है वह कहीं,
अपना मुख मोड़ के।
किस्मतमें जिसकी लिख दिया,
बदल सका है कौन यहाँ,
भाग-भाग थक गया ,
अपनी इस होड़ से।
राम को वन जाना पड़ा,
रावण को सिर गँवाना पड़ा,
सीता समाई धरती में,
रामजी को छोड़ के।
तू जिधर भी भागता है,
रातों को जागता है,
कुछ भी बदल ना सकेगा,
तेरी धूप-दोड़ से।
फिर भी इस जहां में ,
सपनें हम बुनते हैं,
फूल हम चुनते हैं,
सच से मुँह मोड़ के।
कौन बदल सका यहाँ,
विधाता का लिखा हुआ,
भोगना पड़ा सभी को सदा,
भले ,साधू,संत, चोर है ।

Sunday, March 2, 2008

मुक्तक माला-११



आज तुम्हारा टूटा दिल फिर जोड़ेगें।
हर तूफा का रूख मिलकर मोड़ेगें।
क्यूँ अपने से शिकायत है तुम्हें,
दोस्त कहा है अब साथ ना छॊड़ेगें।

कौन सदा साथ रहता है यहाँ आप जान जाएगें।
कौन धारा बिन सहारों के बहता है, यहाँ ना पाएगें।
ऊपर चढना है,तो शर्म कैसी अपनों से करनी,
उन के सिर पाँव रख मंजिल पहुँच जाएगें।

यही द्स्तूर है अब जमाने का यारों।
वफा प्यार तुम जितना भी पुकारो।
कौन कब कहाँ बदले है रंग गिरगिट-सा,
हम भी उसी जमानें की पैदाईश है प्यारो।