Saturday, December 11, 2010

एक प्रेम गीत....



 किसे याद करें....  किसे भूले हम  
वक्त की मार से रोई आँखें ......

जिसने भी प्यार की दुनिया में रखा होगा कदम
दिल मे होगा इक दर्द बैठा होगा कही गम
याद आती होगी उसको यार की बाँहें......


सर्द रातों मे चेहरा उनका दिखता है अक्सर
उदास होती है जिन्दगी कटॆगा कैसे सफर
भुल जाती हैं अब चलते चलते ये राहें.........



प्यार के गीत का मतलब कुछ नही होता
जिसने पाया है वही तो अक्सर है खोता
गवाही देती हैं इसकी गूँजती ये आहें.....


Saturday, November 20, 2010

कोई ढूंढ के लाओ.......

कोई ढूंढ के लाओ सपने मेरे,
कहाँ खो गए अपने मेरे।
ना जानें क्यूँ  याद बहुत आती हैं,
सदा रहती हैं जो घेरे। 
 
जीनें को जीए जाते हैं यहाँ,
गम  हँस के पीए जाते हैं यहाँ,
बहकाती हैं हावायें मुझे छू छू के ,
हर हवा कहती है चल संग मेरे।

कोई ढूंढ के लाओ सपने मेरे,
कहाँ खो गए अपने मेरे।

सागर भी मुझे बुलाता है,
अपनी लहरों मे छुपाना चाहता है।
समझ आता नही जाँऊ मैं कहाँ...
सोच रहती है मुझे बस, यही घेरे।


कोई ढूंढ के लाओ सपने मेरे,
कहाँ खो गए अपने मेरे।

Monday, October 25, 2010

बस ऐसे ही......


अब क्या सुनाएं कहने को कुछ नही यहाँ।
जब जान ली हकीकत, जाएगें अब कहाँ ?

बस खेल है खुदा का, वही खेले रात -दिन,
नासमझ, अपना समझ, बैठे थे ये जहाँ।

कोई जगाए, तो बुरा ,हमको बहुत लगे,
कैसी दुनिया मे यहाँ, रहने लगा इन्सां।

बात कोई समझे, ना समझे , गिला नही,
परमजीत कुछ कहना था कह चले यहाँ।

Monday, October 11, 2010

काश! ऐसा हो सकता..............

हम वहीं हैं हम जहाँ थे इक कदम बढ़ पाये ना।
आँख का पानी तो सूखा सुख के बादल छाये ना।
हक के लिये जिसके, यहाँ इंसान देखो लड़ रहा,
दिल मे रहता है सभी के ये समझ उसे आये ना।


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जब भी
आकाश की ओर देखता हूँ
उसे मुस्कराता ही पाता हूँ
ना मालूम किस बात पर
वह इस तरह मुस्कराता है ?
जरा तुम भी सोचना....
मैं भी सोच रहा हूँ.......
वह किस घर मे समा सकता है??
यहीं सोच-सोच कर
अपना सिर नोंच रहा हूँ।


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यदि मेरे बस मे होता
ये मंदिर,मस्ज़िद,
गिरजे ,गु्रूद्वारे।
इस धरती से हटवा देता।
उस राम का,खुदा का,
निरंकार और जीसस का,
एक सुन्दर -सा घर
तेरे दिल मे बनवा देता।

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Thursday, September 2, 2010

जाग रे अब जाग रे...


जाग रे अब जाग रे....
बहुत सो चुका सपनो की दुनिया मे।


हर तरफ अंगार हैं,हर तरफ हैं खाईयाँ।
पथ तेरा काँटों -भरा है,मीलों हैं तन्हाईयां।
कोई चलने संग तेरे अब नही यहाँ आयेगा।
तू अकेला आया था, तू अकेला जाएगा।
किससे करें, शिकवे- शिकायत जब बँधा यही भाग में।
जाग रे अब जाग रे....
बहुत सो चुका सपनो की दुनिया मे।


आना-जाना दुनिया मे, कब हमारे वश रहा ?
कौन ले जाता हमें भावों के सागर में बहा ?
ढूँढते रहते है अपना, दूसरों मे ये जहाँ।
आज तक कोई ना जाना, जाना है हमको कहाँ ?
जी रहे हैं जानते नही क्या बँधा है भाग में।
जाग रे अब जाग रे....
बहुत सो चुका सपनो की दुनिया मे।

Sunday, August 15, 2010

क्या खबर थी ये..............

 
आज १५ अगस्त है....पता नही मन आज क्युँ कुछ ज्यादा ही उदास हो रहा है। रह रह कर मन कर रहा है कि थोड़ा रो लूँ। शायद मेरे भीतर की पीड़ा कुछ कम हो सकेगी। लेकिन मुझे लग रहा है कि सिर्फ मैं ही ऐसा महसूस नही कर रहा....आज देश में वह हर रहने वाला जिसे अपने देश से जरा -सा भी प्यार है....उस के दिल में एक कसक,एक दर्द-सा जरूर रह रह कर उठ रहा होगा।आज भगत सिहँ राजगुरू सुखदेव नेताजी आदि सभी देश भगत..मुझे बहुत याद आ रहे हैं......मुझे ऐसा लगता है जैसे वे सभी कहीं हमारे आस-पास ही हैं और  हमें देख रहे हैं....वह हमें देख रहे हैं एक उम्मीद भरी नजर से....। वह हमें बहुत कुछ कहना चाह रहें हैं.....लेकिन लगता है आज उनकी बातों को कोई सुनना ही नही चाह रहा.....या यूँ कहूँ कि देश में धमाकों, नेताओ के भाषणों,उन के झूठे वादों, न्याय के लिए गुहार लगाते देशवासीयों और महँगाई से रोती जनता की चीख-पुकार के कारण इतना शोर हो रहा है कि हमें कुछ सुनाई ही नही दे रहा। मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि देश के सभी कर्णधार देशवासीयों की इस हालत को देख कर मुस्करा रहे हैं.....क्योंकि वे जानते हैं वे सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं...किसी को भी अपने मतदानों से जितवा दो....वह कुर्सी पर बैठते ही एक-सा ही  हो जाता है।फिर सत्ता के सुख के आगे उसे कुछ दिखाई ही नही देता।बस यही सब सोचते सोचते कुछ पंक्तियां बन गई हैं.....इन्हें लिखते समय पता नही ऐसा क्युँ लग रहा था कि भीतर कुछ ऐसा है जो आँखों से बाहर आना चाहता है....लेकिन शायद हमीं उसे बाहर नही आने देना चाहते। नीचे की पंक्तियां लिखनें के बाद भी मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि इस से भी  बहुत ज्यादा  कुछ ऐसा है जो मैं या यूँ कहूँ हम कह नही पा रहे....क्यों कि पीड़ा और दुख दर्द को कभी शब्दों से महसूस नही किया जा सकता। 
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दिल मे छुपा हुआ इक अरमान जी उठा।
थी क्या गरज पड़ी उन्हें गये अपनी जां लुटा।      
ना समझ सका आज तक उनके ज़नून को,   
फाँसी का फंदा पहना क्यों, हार -सा उठा।

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क्या खबर थी ये वतन हमें भूल जाएगा।
मेरा तिरंगा होगा लेकिन धूल खाएगा।
क्या खबर थी ये........

मेरे वतन के लोग सभी रास्ता भूले,
देश का नेता वतन को लूट खाएगा।
क्या खबर थी ये........

नेता सुभाष जैसा यहाँ कोई नही है,
जयचंद बैठा कुर्सी पर मुस्कराएगा।
क्या खबर थी ये........

आग लगा खुद ही लोगॊं से ये कहे-
देश पड़ोसी तुम्हारा घर जलाएगा।
क्या खबर थी ये........

फैला के आतंक खुद  शोर करें ये,
खून की हर बूँद वतन पर लुटाएगा।
क्या खबर थी ये........

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई हैं यहाँ,
वोट की खातिर ये इनको लड़ाएगा।
क्या खबर थी ये........

सत्ता संभाल बैठे हो जब दोषी यहाँ सारे,
कौन देशवासीयों को  न्याय दिलाएगा।
क्या खबर थी ये........

भगत राजगुरु सुखदेव सोचते होगें-
अपनों की गुलामी से,  कौन बचाएगा।
क्या खबर थी ये........ 

Wednesday, August 4, 2010

दिल लगा के समझे....


दिल लगा के समझे गम है क्या बला
मगर बस मे कहाँ किसी के दिल कभी रहा।


आईनों के शहर मे वो सूरत करें तलाश
हर आईना अलग है ,यहाँ कौन कब मिला।


जिसे मानते थे अपना हमको गरूर था
वही छोड़ हमको चल दिए सदा कोई कब रहा।


सोचा था याद अब ना तुमको कभी करेगें
किस से करें शिकायत दिल बस मे कब रहा।


कहने को जी रहा है हर शख्स यहाँ खुश है
परमजीत उनसे पूछो  कैसे खुश कभी रहा।

Saturday, July 31, 2010

आस्तिक और नास्तिक



यदि हम पूरे आस्तिक है -
तो भी बह्स नही करते.... 
यदि हम पूरे नास्तिक हैं  -
तो भी बह्स नही करते...

लेकिन  
हम ना तो पूरे अस्तिक हैं 
और ना ही पूरे नास्तिक....
इसी लिए हम बह्स करते हैं।
क्युँकि 
पूर्णता को प्राप्त व्यक्ति के पास 
बह्स का कोई विकल्प ही नही बचता।



Sunday, July 11, 2010

नमस्ते तो ठीक है लेकिन पहले..........



हमारे पड़ोस मे एक माता जी रहती हैं.....वैसे उम्हें माता जी कहना ठीक नही लगता। क्योकि  वे मुझे भाई साहब कहती हैं। अब यह बात अलग है कि उनके बड़े बेटे की उमर मुझ से दो-चार साल ज्यादा ही है। सो मुझे शुरू मे तो अजीब लगा लेकिन अब तो इतना अभ्यस्त हो गया हूँ...कि अब कोई फर्क नही पड़ता...।

बुढ़ा तो हम वैसे ही गए हैं....इस लिए अब तो सब चलता है.......कोई बराबर की उमर का अंकल जी कह दे तो भी।....वैसे इस मे उन बेचारों का भी कोई दोष नही है......अब जब हम पचास-बावन. कि उमर मे भी सत्तर-अस्सी के दिखेगे तो यह सब तो होना ही हैं। सो अब कोई चिंता नही होती......कोई कैसे भी बुलाये। खैर, बात तो हम माता जी कर रहे थे और सूरू हो गए अपनी सुनाने के लिए।....अब तो आप भी हमारी इस बात से समझ गए होगें कि हम सच मे ही बुढ़ा ही गए हैं....।वर्ना एक बात शुरू कर के उसी मे दूसरी बात ना सुनाने लगते।वैसे भी जब कोई इंसान इस तरह करता है तो समझ लो की बुढ़ा गया है या फिर बुढ़ानें वाला है ।

हाँ..तो वह जो माता जी हैं उन का मकान गली में कोने का है। सो जो भी आता है अपनी कार लेकर या स्कूटर लेकर.......वही उन के घर के सामने खड़ा कर के चुपके से खिसक लेता है....।जब माता जी बाहर निकलती हैं...तो परेशान हो कर चिल्लाना शुरू कर देती हैं.....।लेकिन लोग भी इतने ढीठ हैं..कि उन पर कोई असर नही होता।  एक तो माता जी अपने बेटे बहू से वैसे ही दुखी हैं.....दूसरे यह लोग-बाग उन्हे और दुखी कर देते हैं। माता जी अक्सर अपना रोना मेरे सामने रोती रहती हैं.....उनका बेटा हुआ ना हुआ बरबर ही है.......जरा जरा सी बात पर माँ को गालीयां निकालने लगता है....धकियाता है।बहू और उन के बच्चे ऐसे हैं....जिन्हें वह बचपन में सारा दिन खिलाती रहती थी....अब माता जी के आस-पास भी नही फटकते और बहू ऐसी है कि कभी सीधे मुँह उस से कभी बात ही नही करती।......अब तो माता जी को बहू-बेटे ने एक अलग कमरे में पटक दिया है.....जिस मे ना तो बिजली-पंखा है......और पानी माता जी पड़ोस के घर से भरती हैं। बेटा पानी तक नही लेने देता। शुरू शुरू मे तो बेटे को सभी ने समझाने की कोशिश की थी......लेकिन जब वह समझने को ही तैयार नही तो कोई क्या करे?

अब इस आलेख को लिखते हुए तो हमें भी पूरा विश्वास हो चुका है कि हम बुढ़ा ही गये हैं।वर्ना जो घटना या बात आप से कहना चाहते हैं.सीधे उसी की बात ना करते? हुआ ऐसा कि एक बार हमारे पड़ोसी को सूझी कि माता जी के घर के आगे अपनी कार खड़ी करनी शूरू कर दे.....सो वह महाशय अब रोज सुबह साम माता जी को नमस्ते व वरण स्पर्श करने लगे।...जब उन्होनें  अपनी ओर से समझ लिआ कि माता जी अब उन से कूब हिलमिल गई हैं....तो अगले दिन अपनी कार उनके दरवाजे पर खड़ी करने की गरज पहले तो उनका चरण स्पर्श किया फिर नमस्ते कर चलने को हुए तो माता जी ने कहा- "नमस्ते तो भैया ठीक है.....लेकिन पहले यह अपनी कार यहाँ से हटा लो..." यह सारा तमाशा आस-पास और लोग भी देख रहे थे...अत: सभी के चहरे पर एक हल्की सी मुसकराहट फैल गई थी।सो वह महाशय अपनी इज्जत का इस तरह कबाड़ा होता देख कर वहाँ से कार ले तुरन्त नौ दो ग्यारह हो गए। उस दिन के बाद उन महासय को कभी माता जी को नमस्ते करते नही देखा गया।

उन महाशय के जाने के बाद माता जी...हमारे पास आई और बोली-
"भैया!..ये लोग बड़ो को बेवकूफ समझते हैं.....सो अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से बहलाना चाहते हैं।.....अरे ! जब तुम्हारे पास कार पार्क करने की जगह ही नही है तो कार लेते क्यों हो?"

माता जी बात सुन कर मै भी यह सोचने पर मजबूर हो गया कि माता जी बात तो सहि कह रही हैं.....आज लोगों ने इतनी  कारें खरीद ली हैं....कि घर से बाहर निकलना कई बार मुश्किल हो जाता है..आए दिन कार पार्क करने को लेकर लोग झगड़ते रहते हैं.....।पुलिस तक बात पहुँच जाती है कई बार तो... और  सरकार को यह सब नजर नही आता। वह सब्जी वालों और रेहड़ी वालों को तो जब तब लताड़ लगाती रहती है लेकिन इस समस्या की ओर से सदा आँखें मूदें रहती है.....वोट का सवाल जो है.....

Saturday, June 26, 2010

एक भीगी - सी याद..- पिताजी की पुण्य तिथि पर...




नींद उड़ जाती है जब जिक्र तेरा होता है।
अकेला जब होता है  दिल, बहुत रोता है।

उदास रातों मे अक्सर नजर आता है तू,
ये हादसा क्यूँ बार बार, मेरे संग होता है।

कौन देगा जवाब अब ,मेरे सवालों का,
तू अब चैन से बहुत दूर कहीं सोता है।

मेरे हरिक दुख को सुख मे बदलने वाले,
इतना नाराज कोई, अपनो से  होता है।

या खुद आ या बुला मुझको पास अपने,
परमजीत से अब नही इन्तजार  होता है।

Monday, June 7, 2010

कुछ लघु कविताएं- क्षणिकाएं


अबला
जब तक तुम 
अपने आप को 
दूसरों के दर्पण मे 
देखना चाहोगी। 
तुम अबला ही कहलाओगी।

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 प्रेम या कर्ज

तुम को सँवारनें मे 
मैने अपना जीवन 
होम कर दिया।
अपनी खुशीयां देकर 
तुम्हारा गम लिआ।
वह प्रेम था तो.....
इस बात को भूल जाओ।
कर्ज था तो....
अपनी गलती पर पछताओ।

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चालाकी


सच
कड़वा या मीठा 
नही होता।
भाव उन्हें बना देते हैं।
सच कड़वा हो तो...
दूसरों के लिए।
मीठा हो तो...
अपना समझ खा लेते हैं।

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Monday, May 31, 2010

बहुत सताया गर्मी ने......

                                             (चित्र गुगुल से साभार)
रिम-झिम रिम-झिम बरसा बादल,
बहुत सताया सूरज ने...
सब के तन मन आग लगी है,
बहुत सताया गर्मी ने....

ऊपर वाले अब तो सुन ले,

तू अब तक क्यों सोया है।
महँगाई की मारे खा के,
निर्धन अक्सर रोया है।
तू भी क्यों उस को है रूलाता,
पेश आ उस से नर्मी से।
रिम-झिम रिम-झिम बरसा बादल,
बहुत सताया सूरज ने...
सब के तन मन आग लगी है,
बहुत सताया गर्मी ने ।


गर्मी के कारण यह बंदा,
सूझबूझ सब खो बैठा है।
मत दे अब यह भुगत रहा है
बीज ही ऐसा बो बैठा है।
छोटे छोटे स्वार्थ के कारण,
देश का हित यह खो बैठा है।
वादों पर वादा कर कर नेता,
हसँता है बेशर्मी से।
रिम-झिम रिम-झिम बरसा बादल,
बहुत सताया सूरज ने...
सब के तन मन आग लगी है,
बहुत सताया गर्मी ने....।

साठ बरस मे पीने का पानी,
देश को ना यहाँ मिल पाया।
मिल बाँट कर नेताओ ने,
बहुत लूट कर है खाया।
अब तो होश मे आओ जनता,
सो ना सकोगे गर्मी में।
रिम-झिम रिम-झिम बरसा बादल,
बहुत सताया सूरज ने...
सब के तन मन आग लगी है,
बहुत सताया गर्मी ने....।

इस गर्मी ने मुझ से देखो..
क्या क्या है यहाँ बुलवाया।
ऊपरवाले से बस कहना था..
बरसा बादल, दे छाया।
तन मन के सब ताप हरे जो,
दे निजात इस गर्मी से।
रिम-झिम रिम-झिम बरसा बादल,
बहुत सताया सूरज ने...
सब के तन मन आग लगी है,
बहुत सताया गर्मी ने....

Sunday, May 16, 2010

गर्मीयां......


पेड़ की ओट में
अपने बच्चों को समेटती
इन गर्म हवाओं और लू की मार सहती
वह गरीब औरत
जो राजधानी मे
पेट भरने को आई थी
परिवार के साथ...
सोच रही होगी-
इस पूरी गर्मी को....
मेरे कितने बच्चे देख पाएगें?
कितने वापिस गाँव जाएगें?
...

Sunday, May 9, 2010

मेरी डायरी का पन्ना - २




 डायरी का पन्ना - १
पिछ्ला भाग पढ़े।
हम सभी जी रहे हैं लेकिन हम मे से कितने होगें जो किसी लक्ष्य को लेकर जी रहे हैं।शायद यह प्रतिशत बहुत कम होगा।समय के साथ साथ परिस्थिति वश हमारी दिशा प्रभावित होती रहती है।हम ना चाहते हुए भी लाख कोशिश करें लेकिन परिस्थितियां हमारे रास्ते को बदलने मे अक्सर सफल ही रहती हैं।कई बार अनायास ही हमारे जीवन में ऐसा कुछ घट जाता है कि हमारी सभी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं।तब ऐसा लगता है की हमारे किए कराए पर पानी फिर गया।ऐसे समय मे हमारी दिशा ही बदल जाती है।उस रास्ते पर चलना ही मात्र हमारी मजबूरी बन कर रह जाती है।ऐसे समय मे हम मे भले ही  साहस हो या ना हो....लेकिन हम ऐसे कदम उठाने से भी नही हिचकिचाते जि्न्हें हम सामान्य स्थिति मे कदापि उठाने की हिम्मत नही कर सकते थे।इसी संदर्भ मे एक घटना याद आ रही है।

मुझे याद है जब हम एक सरकारी कवाटर मे सपरिवार रहा करते थे...पहले वह मकान पिता के नाम से अलाट था.....लेकिन पिता के बीमार होने के कारण ..पिता को मेडिकल रिटार्यर मेंट लेनी पड़ी और अपनी नौकरी और कवाटर बड़े भाई के नाम करना पड़ा।.उन्हीं दिनो बड़े भाई की शादी कर दी गई और शादी के कुछ दिनो के बाद ही समस्याओ ने आ घेरा।नयी नवेली के आते ही हमे घर से विदाई लेने का जोर दिया जाने लगा...ऐसे मे मजबूर होकर एक बड़ा कर्ज उठाना पड़ा.....अपना ठौर ठिकाना बनाने के लिए।उस समय को याद कर आज भी सिहर उठता हूँ....समझ नही पाया कि कैसे उस समय अपने बुजुर्ग पिता के सहारे यह कर्ज उठाने की हिम्मत कर सका था।उस समय सभी अपनों ने मदद करने के नाम पर अपने हाथ उठा दिए थे।लेकिन उस समय कर्ज एक मजबूरी बन गया था।आज लगता है यह अच्छा ही हुआ।इसी बहानें साहस ना होते हुए भी एक ऐसा कदम उठा सके ।लेकिन इस कदम को उठाने के बाद अपनों के प्रति जो लगाव था वह छिन्न-भिन्न हो गया।वह बात अलग है कि समय व ऊपर वाले की कृपा से उस कर्ज से बाद मे निजात पा ली थी।उस समय यह महसूस हुआ था कि जीवन का लक्ष्य......परिस्थितियां किस प्रकार परिवर्तन कर देती हैं।किस प्रकार ऐसी घटनाएं हमे साहस की ओर धकेल देती हैं।

जहाँ तक मैं महसूस करता हूँ हमारा मुख्य लक्ष्य आनंद और सुख की प्राप्ती ही होता है। हम जीवन भर सिर्फ आनंद की तलाश मे ही रहते हैं। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि हम इर्ष्या व द्वैष के वशीभूत हो कर अपने आप को और दूसरो को परेशानीयों मे डाल लेते है।वास्तव मे इस के मूल मे हमारा अंहकार और लालच ही छुपा होता है।यदि हम इन दोनो पर अंकुश लगा लें तो हमें आनंद की प्राप्ती सहज सुलभ होने लगेगी।लेकिन यह कार्य जितना सरल दीखता है उतना है नही।इसके लिए स्व विवेक या आध्यात्म का सहारा लेना ही पड़ेगा। तभी इस से बचा जा सकता है।

अधिकतर हम आनंद को बाहर खोजते हैं......कारण साफ है हमारा प्रत्यक्ष से ही  पहला परिचय होता है।इस लिए हमारा सारा जोर बाहरी साज सामान जुटानें मे ही लगा रहता है।बाहरी साधनों में भी सुखानुभूति व आनंदानूभूति होती है। लेकिन यह साधन सर्व सुलभ नही हैं।अर्थ प्राप्ती के लिए अनुकूल परिस्थितियां व व्यापारिक बुद्धिमत्ता होनी जरूरी है। अत: इस कारण सभी इस से लाभवंतित नही हो सकते।

दूसरी ओर आध्यात्म का रास्ता है। जहाँ बिना साधन भी आनंद की प्राप्ती की जा सकती है।लेकिन इसके लिए भीतर की ओर मुड़ना पड़ता है।अंतर्मुखी होना पड़ता है।लेकिन यहाँ बाहरी आकर्षण हमे भीतर जाने से रोकता है।लेकिन निरन्तर अभ्यास से इस मे सफलता पाई जा सकती है।लेकिन एक बात सत्य है कि दोनों ही आनंद प्राप्ती के साधन कम या ज्यादा अर्थ पर निर्भर करते हैं।बिना साधनों के कठोरता से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले अब नही के बराबर ही रह गए हैं।हम अपनी परिस्थियों के अनुसार ही अपना रास्ता चुन सकते हैं।

Sunday, May 2, 2010

उदासी का राज.....



उदास मन,उदास मेरा, दिन और रात है।
वजह नजर आती नही,  ये कैसी बात है।

या रब खफा है तू ,या खुद से खफा हूँ मै,

समझ नही आता मिली, कैसी, सौगात हैं।


पूछूँ किसे जाकर बताएगा यहाँ  अब कौन,
हर दिल का लगे ऐसा ही, मुझको हाल है।


मन की आँख जैसे, मुझे दुनिया दिखे वैसे,
परमजीत तेरी उदासी का  बस!यही राज है।

Thursday, April 22, 2010

मुर्दो की बस्तीयों में.....


मुर्दो को बस्तीयों में घर हमने बसाया है।
जो रूठ कर बैठा  है,  अपना ही साया है।


बहारों की तमन्ना, करते सभी हैं लेकिन-
सौंगात को यहाँ पर,कब किसने पाया है।


आग सब तरफ है बाहर भी और दिल में,
आतिशे मौसम, क्या लौट फिर आया है।


मज़हब के नाम पर, होते यहाँ धमाके -
या खुदा तूने, कैसा  इंसान  बनाया है।


परमजीत दिल दुनिया, देख पूछता है-
आकर यहाँ  हमने, खोया क्या पाया है।


मुर्दो को बस्तीयों में घर हमने बसाया है।
जो रूठ कर बैठा  है,  अपना ही साया है।

Monday, April 12, 2010

दिल कहीं पर जल रहा............

                                                     (by shiknet)
दिल कहीं पर जल रहा और कहीं दीप है,
तेरी मेरी कोई ना जानें ये कैसी प्रीत है।

तू हमेशा प्रश्न मुझ पर दागता रहता सदा,
मै हमेशा बहता हूँ जिस ओर चलती है हवा।
बस मे मेरे अब नही, चलता नही कोई जोर है,
मै गुलामी कर रहा चारों तरफ यह शोर है।
वक्त के हाथों बिका हूँ जानता हूँ मैं यहाँ,
छोड़ दूँ कैसे तुम्हें कोई नही मेरा यहाँ।

हर कोई फिरता अकेला जिन्दगी की रीत है।
दिल कहीं पर जल रहा और कहीं दीप है,
तेरी मेरी कोई ना जानें ये कैसी प्रीत है।

सोचता होगा जमाना बात किस की कर रहा,
किस की चाहत में यहाँ कोई अकेला मर रहा।
हर किसी का है कोई इक दिल में अपने झाँक ले,
कर प्रतीक्षा आ ही जाएगा पास तेरे साँझ में।
वैसे तो वो पास ही तेरे रहता है सदा,
हँसता रहता है वो तुझ पर, देख खोजी की अदा।

पास है जो, दिखती नही इन्सान को वह चीज है।
दिल कहीं पर जल रहा और कहीं दीप है,
तेरी मेरी कोई ना जानें ये कैसी प्रीत है।

Monday, April 5, 2010

सिखिज्म - १


सिखिज्म


मेरी डायरी का पन्ना - १


जीवन में कई बार ऐसे मौके आते हैं कि हम जो होते हैं उस से एकदम विपरीत सोचनें लगते हैं।जब कि हम खुद भी नही जानते कि ऐसा क्युं कर होता है।हमारा मन ,हमारा दिल, दिमाग अचानक हमारे लिए अनायास अंनजान सा क्युं हो जाता है। जब कि हम सदा ऐसा मानकर चलते हैं कि हम अपने आप को, अपने विचारों को, अपनी सोच को,बहुत अच्छी तरह समझते हैं।मैनें इस बारे मे बहुत सोचा और पाया कि वास्तव में हमारे भीतर यह परिवर्तन अचानक नही होता.....कहीं बहुत भीतर यह सोच या यूं कहे कुछ विचार ऐसे होते हैं जिन्हे हम स्वयं भी नही समझ पाते। हमारे अचेतन मन में बैठे रहते हैं.....लेकिन यह प्रकट नहीं हो पाते....क्यों कि जब तक इन्हें कोई बाहरी संबल या यूं कहे सहारा नही मिलता...यह मुर्दा पड़े रहते हैं।लेकिन किसी दिन अचानक इन का प्रकट हो जाना और ऐसा आभास दे जाना कि अब तक जो तुम सोच रहे थे या विचार रखते थे ,वह सब हमारा अपना ओड़ा हुआ एक आवरण मात्र था।जो शायद हम दुनिया को दिखाने के लिए या यूं कहे दुनिया को धोखा देनें के लिए ओड़े रहते हैं, असल में एक झूठा आवरण मात्र ही होता है।इस आवरण के हटते ही हम अपने आप को एक दूसरे आदमी के रूप में पाते हैं।जो एक बहुत गहरी सुखानुभूति या बहुत गहरे सदमे का कारण बन सकती है।इस अवस्था में पहुँचने के बाद मुझे लगता है कोई हानि नही होती।भले ही कुछ समय के लिए या ज्यादा समय के लिए..हम मानसिक रूप से अस्थिर हो जाते हैं या भावनात्मक रूप से उद्धेलित हो जाते हैं। हमे ऐसा लगने लगता है कि अब शायद हमारे लिए कुछ भी नही बचेगा........अब हमारा जीना मात्र मजबूरी बन कर रह जाएगा...लेकिन ऐसा कुछ भी नही होता.....समय एक ऐसा मरहम है जो सभी घावों को धीरे धीरे भर ही देता है।

इस तरह कुछ समय बीतनें पर जीवन में एक तरह का नयापन महसूस होता है.....जीवन को एक नये रास्ते पर चलने की प्रेरणा मिलती है।पता नही कब किस के मुहँ से सुना था कि जीवन की कठिनाईयां आने पर उन से भागों मत....बल्कि उन का हल खोजों। यदि असफलता मिलती है तो उस का कारण खोजों।कारण नही ढूंढ पाते....तो भी रुकना मत......क्युंकि यह जीवन तुम्हें जीनें के लिए मिला है।भले ही इस जीवन को तुम अपने ढंग से नही ढाल पा रहे हो.....तो फिर जिस ढंग से यह जीवन तुम्हें बहा रहा है उसी में बहते हुए ही उस का आनंद उठाओ।

Monday, March 29, 2010

बेमतब की बातें...

बेमतलब बोलता बच्चा
कभी गाता है...
कभी नाचता है..
कभी अध्यापक बनकर
उन बालको को पढ़ाता है...
जो वहाँ हैं ही नही...

कई बार उस से खींज कर
उसके इस बेमतल के 
शोर और नाच के कारण
उस पर चिल्लाता हूँ.....
वह तो दोड़ जाता है...
लेकिन  उसकी जगह
हर बार अपने को पाता हूँ।

पता नही मै अपने को
ऐसे क्यूँ सताता हूँ।
जबकि जानता हूँ-
मै भी उसी बच्चे की तरह गाता हूँ।
अपना गीत खुद को ही सुनाता हूँ।

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गलत और सही की परिभाषा मे
किस विचार को बाँधा जा सकता है?
क्योकि हरेक की परिभाषा अलग होती है...
इसी लिए इंसानियत रोती है।

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किसी ने फल खा कर
उसका छिलका सड़क पर डाल दिया।
अच्छा हुआ गरीब ने उसे खा लिया..
और एक हादसा टाल दिया।

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बड़े नाम वाले की 
बेमतब की बात भी 
बड़ी हो जाती है।
भले ही उसको 
समझ आए या ना आए-
आम आदमी को 
बहुत भाती है।

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Monday, March 22, 2010

मन हमारा पंछी....

                                                                                                    (गुगुल से साभार)


मन हमारा पंछी बन कर उड़ रहा आकाश में...
ठौर यहाँ मिल ना सके, मिल जाएगी इतिहास में।

सोचता है कौन, जीवन को समर, कोई यहाँ...
चल रहे हैं हम सभी,भीड के ही साथ में।


जी रहे हैं, या की जीना, आज हम को पड़ रहा...
आज जीवन भी ये अपना, रहा नही है हाथ में।


सीख देते हैं सभी, हिम्मत कभी ना हारना....
हिम्मत कहाँ से लाये हम,बिकती नही बाजार में।


जो मरा हो पहले से उसको कभी ना मारना...
लेकिन मरता है यही, देखो जरा इतिहास में।




सच ही जीता है सदा,सुनते आये हैं इतिहास मे..
सोचता हूँ ,क्या धरा है, आज इस बकवास में।

मन हमारा पंछी बन कर उड़ रहा आकाश में...
ठौर यहाँ मिल ना सके, मिल जाएगी इतिहास में।

Monday, March 15, 2010

मन की तरंगे......

 


कब तक कोई बाहर ही देखता रहे...समझ मे नही आता कि बाहर ऐसा क्या है ?..... जिस का मोह हम से छूटता ही नही। कितना तो भाग चुके इन सब के पीछे.....कितनी सफलताएं असफलताएं हाथ आई हैं, ऐसा लगता है हमें ।......लेकिन जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो सिवा खालीपन के कुछ नजर ही नही आता। फिर हमारी यह दोड़ आखिर किस के लिए है ?.....लेकिन क्या कोई बेमतलब इस तरह अपने को थकाता है...जरूर ही हम कुछ तलाश रहे हैं अपने जीवन मे.....और हमारी यह तलाश भी अलग अलग नही है......सभी को सिर्फ एक ही तलाश है......यह बात अलग है कि हम सभी उसे अलग अलग ढूंढ रहे है..। कोई उसे धन मे ढूंढ रहा है तो कोई यश में....कोई धर्म मे ढूंढ रहा है ...कोई पद में ढूंढ रहा है....तो कोई विज्ञान मे..। इसी खोज के कारण आज हम चलते-चलते कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं...और वह है ....कि हमारी पहुँच मे कभी आता ही नही..। हम  सदा सोचते हैं कि हम जब भी सफल होगे उस को पा जाएगे...और इस सफलता को पाने के लिए हमे जो भी अच्छा बुरा रास्ता अपनाना पड़े ....उस से हमे कोई फर्क नही पड़ता। हमारी बला से कोई हमारे इस प्रयास के कारण मरता है तो मरे.....दुखी होता है तो होता रहे....। इस बारे मे सोचने के लिए हमे फुर्सत कहाँ है....?? हमे तो बस उसे पाना है......जैसे भी हो....। हमारी तलाश तब तक बंद भी नही हो सकती।...यदि हम चाहे भी कि अब उसकी खोज नही करेगे तो भी....हम ज्यादा देर तक खाली नही बैठ सकते .......खाली बैठे रहने से हमारे भीतर.....तरह तरह की कल्पनाएं जन्म लेने लगती हैं......जो हमे डराती हैं.....लुभाती हैं.....और फिर चलते रहने को मजबूर कर देती हैं.....। वैसे भी हमारी सोच कभी बंद तो होती ही नही.....हम कुछ भी ना कर रहे हो.....हमारा सोचना चलता ही रहता है.....। यदि हम चाहे भी तो ठहर नही सकते.....क्योकि हमारे ठहरने से (जबकि हम कभी ठहरते नही लेकिन मान लेते हैं कि हम अब ठहर गए हैं)  समय तो ठहरता नही ...। समय तो हमे अपने साथ घसीटता हुआ लिए जा रहा है.... और तब तक हमे घसीटता रहेगा जब तक हमे हमारे होने का एहसास हमारे भीतर जिन्दा है। इसी एहसास के कारण तो आज मैं अपने से ही बतियाने लगा हूँ.....। वैसे हम सभी जब भी कुछ लिखते हैं तो दूसरे का एह्सास हमारे भीतर रहता ही है....शायद तभी तो हम लिख पाते हैं.....। लेकिन आज मन किया कि अपने लिए लिखूँ.....। बहुत भागता रहा हूँ अपने से.....अपने से बचने के लिए ही तो दीन दुनिया की बातें करता रहता हूँ.....। लेकिन आज ठान लिआ है कि यह जान कर रहूँगा कि आखिर मैं चाहता क्या हूँ.....आखिर क्यों मुझे लगता है कि मेरे भीतर कुछ ऐसा जरूर है जो मुझे हर पल यह एहसास दिलाता रहता है कि कुछ ऐसा जरूर है जो मैं चाहता हूँ, पर उस तक कभी पहुँच नही पाता...या कभी उस की झलक मुझे मिलती भी है तो मैं समझते हुए भी उसे समझ क्युँ नही पाता..। कई बार मुझे ऐसा लगता है कि यह सब सिर्फ मेरे साथ ही होता है.....लेकिन जब अपने आस पास देखता हुँ तो लगता हैं नही....ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही नही हो रहा....दूसरे भी शायद इसी अवस्था से गुजरते होगे...या गुजर रहे हैं...। यह हो सकता है कि उन्हें अभी इस बात कि ओर ध्यान ही ना गया हो कि वे क्या चाहते हैं....जब कि तलाश उन की भी यही है...।

अपने जीवन में कभी एक को चुनने की स्वतंत्रता नही मिलती हमको। क्योंकि  हमारे सामने हमेशा दो विकल्प रहते हैं....हमारे जीवन मे एक हमारी मजबूरी के कारण होता है और दूसरा हमारी मर्जी का तो होता है लेकिन वह हमारी परिस्थितियों पर आधारित होता है...। अब क्या किया जा सकता है जब पेट साथ मे हो तो.....उस के लिए भी तो कुछ चाहिए....ताकि हम भी चलने लायक बने रह सकें..। वैसे देखा जाए तो यहीं से हमारा भटकाव शुरू होता है....। यहीं से हम उस से दूर होने लगते हैं जिसे हम ना जानते हुए भी सदा चाहते रहते हैं।....यहीं से यह दूरी बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ जाती है कि हमे लगने लगता है कि अब शायद ही हमारा कभी लौटना हो सकेगा...शायद ही हम कभी उस तक पहुँच पाएगें। लेकिन नही....ऐसा कुछ भी नही है......हमे भले ही ऐसा लगता हो  कि हम बहुत दूर निकल आएं हैं लेकिन वह कभी भी हमसे दूर नही होता। सिर्फ हमारा भ्रम ही हमें ऐसा महसूस कराता रहता है।


Monday, March 8, 2010

ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है......



ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है
जिसने ये देश बाँटा वो इंसान बुरा है।


गाँधी गोली खा मरे बहुत बुरा हुआ
सुभाष लापता हुए बहुत बुरा हुआ
फायदा किसे हुआ जानता है रब..
देश ना समझा ये बहुत बुरा हुआ।
चुप रहके सब देखना, मान बुरा है।
ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है


सोचता हूँ सुभाष गर देश मे होते,
देशवासी आतंक से आज ना रोते।
बाँट ना पाता कोई टुकड़ो मे यूँ देश,
सरदार गर हमारे आज बीच मे होते।
निजि फर्ज से मुँह फैरना जान बुरा है।
ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है।


सुनता गर  गाँधी की कोई, देश ना बँटता।
चीन कभी सीमा पर घुसपैठ ना करता।
अमरीका दादा बन सबको सीख ना देता।
नेताओ की नैतिकता कोई छीन ना लेता।
दब के किसी से, छोड़ना स्वाभिमान बुरा है।
ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है


भ्रष्टाचार के कारण मेरा देश ना रोता।
मँहगाई की आग देख,  नेता ना सोता।
कुर्सी बचाने के लिए दुश्मन को कहे दोस्त,
देश मे अपने चलन ये, आज ना होता।
ऐसे नेताओ को मिले जब, मान बुरा है।
ना हिन्दू बुरा है ना मुसलमान बुरा है                                


                                                                     (क्रमश:)

Monday, March 1, 2010

चंद मुक्तक

ना पूछो, वक्त ने क्या क्या सितम ढहाए हैं।
अपनो ने जो रास्ते हमको अब तक दिखाए हैं
समझ आता नही जाए कहां कोई बता दो यार,
यहां हर मोड़ पर हमने  देखे बस चौराहे हैं।


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हरिक चौराहे पर अब भीड़ दिखती है।
वह ऐसा  मुझे हर खत मे लिखती है।
मेरा बाहर जाना इतना गजब ढहाएगा-
यहां हरिक चीज लगता है, बिकती है।


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Monday, February 22, 2010

दो क्षणिकाएं

पता नही-

किस की नजर लग गई है...
अब मेरा बटुआ पहले जैसा
नजर नही आता।
जेब मे होते हुए भी
जेब में है...
लेकिन...

मै जान नही पाता।
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इस मंदी से मार....
हम और तुमको खानी है।
नेता तो इस मंदी से भी
फायदा उठाएंगे।

वे जानते हैं ...
मतदाता कितना अकलमंद है-
भेड़ चाल चलता है..
सौ के नोट और... 
एक बोतल पर पलता है।
इस लिए वे हमे देख...
हाथ हिलाएगे और मुस्कराएगें।
वे जानते हैं 
ऐसे ही मतदाता 
कुर्सी पर बिठाएगें।
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Monday, February 15, 2010

दुआ कीजिए.........

शिकायत किसी से क्या कीजिए।
खुद अपना दामन बचा लिजिए।

बहुत धोखा खाया है चेहरों से हमने,
मुखौटा ये अपना हटा लीजिए।

पहचानते हैं हम भी अपना पराया
ऐसे ख्याल ना भीतर पालीए।

कदम अब संभल कर हम रख रहे हैं,
मंजिल तक पहुँचे दुआ कीजिए।

Thursday, February 11, 2010

बुझी चिंगारीयों को फिर से हवा मिल रही है..


 बिना कारण कुछ भी तो नही होता.....समस्याए पैदा ही तभी होती हैं जब कोई कारण हो।..यदि समय रहते उस कारण को दूर कर दिया जाए तो यह अंसभव है कि वह समस्या ज्यादा देर टिक पायेगी।क्यों कि कोई बाहरी दुश्मन तभी किसी देश मे हस्तक्षेप कर सकता है जब उसको वहाँ कोई छिद्र नजर आता है.......लेकिन यहाँ तो छिद्र ही नही पूरा हिस्सा ही गायब है......ऐसे में अपनी गलती को दूसरों के सिर मड़ कर हम पाक साफ नही हो सकते। आज जो पुरानी बुझी चिंगारीया फिर से सुलगती नजर आ रही हैं...उस का कारण भी यही है.....हम ऐसा मौका ही क्यों दे कि कोई हमारे घर मे आग को भड़काने का काम कर सके।अपने घर की अखंडता को कायम रखने के लिए यह बहुत जरूरी है कि सभी को निष्पक्षता के साथ न्याय प्राप्त हो।तभी बाहरी ताकतो को अपने घर मे दखल देने से रोका जा सकेगा।वर्ना उन्हें हमारे घरवालों  को उकसाने का एक बहाना मिल जाएगा।वे कह सकते हैं कि देखो तुम्हारे साथ कैसा सौंतेलापन किया जा रहा है......तुम्हे इस के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। ऐसे मे किसी को बरगलाना कितना आसान होता है यह आसानी से समझा जा सकता है।लेकिन हम क्या कर रहे हैं?....असली कारण को समझे बिना टहनीयों को काटने मे लगे हुए हैं या हमेशा टहनीयों को ही काटते रहते हैं। यदि हम अपने घर को मजबूत कर ले तो बाहर से पत्थर मारने वालों के पत्थर हमारा कुछ भी नही बिगाड़ सकते।इस लिए सब से जरुरी है कि अपने घर वालो को उन के साथ हुई ज्यादतीयों को निष्पक्ष हो कर सुलझाया जाए। उन्हें निष्पक्ष न्याय मिले।हमारे देश की न्याय प्रणाली में कोई खामी नही है.....लेकिन राजनैतिक दखलांदाजी उसे इतना अधिक प्रभावित कर देती है.कि..न्याय मिलने तक, न्याय पाने वाला, न्याय मिलने की उम्मीद ही छोड़ देता है....या फिर जब न्याय मिलता है तो इतने देर से की उसका कोई महत्व ही नही रह जाता।
दूसरी ओर अपने निहित स्वार्थो के कारण ऐसे मामलो को अपने राजनैतिक लाभ के लिए इस्तमाल करने की प्रवृति के कारण देश को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। देश को जाति और भाषा के नाम पर बाँटना  और अपने वोट बैंक को बनाये रखने की खातिर सही समय पर उचित कदम ना उठाना जैसी  प्रवृति को दूर किए बिना देश सुरक्षित नही रह सकता।अत: जब तक ऐसी बातों पर अंकुश नही लगेगा तब तक बाहरी दुश्मनों को अपने देश के अदंर घुसपैठ करने से रोकने की कोशिश पूरी तरह कामयाब होनी बहुत असंभव लगती है। ऐसी प्रवृतियों के चलते देश के भीतर ही हम ऐसा माहौल तैयार कर रहें है जो अतंत: देश के लिए अहितकर साबित होगा।समय रहते ही सचेत हो जाने मे समझदारी है।

आप सोच रहे होगें कि कवितायें लिखते लिखते यह सब क्या लिखने लगा....लेकिन यह सब लिखने का कारण एक खबर है  जिस कारण यह सब लिख मारा।सुना है कि सिख आतंकवाद को सीमा पार से शह दी जा रही है। यह बयान गहलोत जी ने दिया है।
 इन्ही बातों को पढ़्ते पढ़ते कुछ पंक्तियां मन मे मडरानें लगी ।अत: यहाँ लिख दी।

 बुझी चिंगारीयों को   
फिर से हवा मिल रही है..
जंगलो मे फिर से
जहरीली घास खिल रही है।
मगर यह हो रहा है क्यों...
सोचना ही नही चाहते,
न्याय जिसको मिला ना हो
चोट वही उभर रही है।

मिलता है दुश्मनो को बहाना
अपना बन उकसाने का।
किये अन्याय को अपने
दुनिया से छुपाने का।
ना कोई दोष दो दूजों को
बीज तुमने ही  बोये हैं,
तुम्हे भाता बहुत है खेल ये
सब को सताने का।

समझदारी इसी मे है 
अपने स्वार्थ को छोड़ें।
देश हित सबसे पहले हो
बाकी बातें सब छोड़ें।
हो व्यवाहर ऐसा आपस मे
स्वयं से करते हैं जैसे,
चलो बुरे लोगो के मिलकर
आज दाँत हम तोड़ें।

Monday, February 8, 2010

जिज्ञासा

अपने
अधूरेपन की तलाश
मुझे यात्रा पर ले जाती है।

जहाँ वह मुझे
अन्जान रास्तो पर
अंन्जान लोगो के बीच
बहुत खेल खिलाती है।
मेरा तमाशा बनाती है।

लेकिन
मेरी हताशा देख कर
कोई आवाज
मुझे बुलाती है
मुझे समझाती है-
इस जिज्ञासा को
जलाए रखे
अपने भीतर।
देर सबेर रास्ता
मिल ही जाएगा।
जब कोई
अपने भीतर
अपने को पाएगा।

Monday, February 1, 2010

किसी से भी नही गिला.....


संभल
कर जब भी चला
सिवा ठोकर के मुझे क्या मिला ?
लेकिन मुझे इस बात का
किसी से भी नही गिला।

क्योंकि मेरा संभलना,
उन मेरे अपनों के लिए

दुखदाई
हो जाता है।
जिन्हें मेरी लापरवाही से चलना
बहुत भाता है।

इसी लिए मेरा इस तरह चलना
उन्हे रास्तों मे पत्थर रखने को
मजबूर करता है।
उनके भीतर
ईष्या को
भरता है।

ऐसे में जब भी मैं ,
अपने आप से पूछता हूँ...
इस ईष्या को
जन्म देना वाला कौन हैं ?
मेरे भीतर से
कोई आवाज नही आती,
वहाँ सिर्फ मौन है।

इस मौन की परतों को
अक्सर मै खोलता रहता हूँ
इस उम्मीद के साथ....
शायद कभी ,कहीं, बहुत गहरे में,
छुपा कोई उत्तर मुझे मिल जाए....
पत्थर रखने वालो के मन में,
कोई फूल खिल जाए।
इस तरह उनका भी होगा भला,
मेरा भी होगा भला।
लेकिन मेरे विश्वास ने
हर बार है छला।
लेकिन मुझे इस बात का
किसी से भी नही गिला।

Monday, January 25, 2010

गज़ल


                            (नेट से साभार)

आज फुर्सत मे बैठ कर कुछ गजलें सुन रहा था.."तुम इतना क्यूं मुस्करा रहे हो.." इसी को सुनने के बाद गजल लिखने बैठा और ये गजल बना ली....। इस मे उस गजल की झलक भी नजर आएगी....लेकिन फिर भी लिख दी....। जब गजल कि अंतिम पंक्तियां लिखनें लगा....तो सच्चाई अपने आप सामने आ गई..ये पंक्तियां कहीं बहुत गहरे से निकल कर सामने आ गई..हैं ...आप भी देखे....।
.
मुस्कराने की नही बात क्यूँ मुस्करा रहे हो।
कुछ बोलते नही , हमको बहका  रहे हो।

खुशी होती गर कोई, बाँट तुझसे लेते,
क्यूं कर मुझको ऐसे, तुम सता रहे हो।

बात कुछ हुई है , चुभ रही है तुम को।
चुप रह कर मुझको , पराया बना रहे हो।

आईना भी मुझको अब , कुछ नही बताता,
लगता है ये भी मुझको, तुझ से मिल गया हो।


कहने को दिल की बातें, हम आज कह रहे हैं,
परमजीत दूसरो के ख्यालों को,अपना बता रहे हो।

Monday, January 18, 2010

ये कैसी जिन्दगी है........


अपनी आवाज भी मुझ को, सुनाई नही देती।
ये कैसी जिन्दगी है जिन्दगी, दिखाई नही देती।

नशा है जाम का जिस मे बहक चल रहे है सब,
होश मे मुझको यहाँ जिन्दगी दिखाई नही देती।

हरिक पल मर रहा है जिन्दगी का सामने मेरे,
पकड़ना दूर,मुझको संग भी, चलने नही देती।

खुदा ने दी, खुदा के वास्ते ही थी ये जब जाना,
परमजीत मौत मौहलत जिन्दगी को नही देती।

Monday, January 11, 2010

कुछ क्षणिकाएं


ठंड बहुत है....
इसी लिए सरकार ने
गरीबों के लिए
ठंड से बचाने के लिए
यह जुगत लगाई है -
महँगाई की आग जलाई है।
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जब कोई गलत आदमी
सही बात बोलता है....
आदमी को नहीं 
उस की बात को 
मान देना चाहिए।
यदि यह तुम्हें 
स्वीकार नही...
अपने को -

पहचान लेना चाहिए।
****************

मैं हमेशा चाहता था....
मेरा मालिक-
मेरे हर प्रश्न का उत्तर दे।
लेकिन ...
वह सदा रहता मौन था।
आज जब -

मैं मालिक बन गया हूँ
नही जानता....
प्रश्न पूछने वाला कौन था ?
******************

Monday, January 4, 2010

दिल की बातें.........




दिल की बातों का असर अब नही होता।
दुसरो के लिए कोई यहा अब नही रोता।

जिन्हें सदा देख कर , मुस्कराते थे हम,
उनकी तस्वीर है ये, यकी अब नही होता।

खेल है किस्मत का या कहर है उनका,
खुदा भी मेहरबा हम पर, अब नही होता।

अब दिल की बातों को सुनना छोड़ दिया,
परमजीत दिल सबके पास अब नही होता।

Sunday, January 3, 2010

अब यह चुप्पी तोड़ दो



तुम से किसने कहा-
तुम चुप रहो....
अपने को संभालो
मत ऐसे बहो।


तुम्हारा चुप रहना ही
कमजोर बनाता है।
दूसरो की
हिम्मत बढ़ाता है।


जरा अपनी तरफ देखो-
तुम भी ठीक वैसे ही हो
जैसा वह है..
फिर किस बात का भय है ?


बस! गलत का साथ
इस लिए मत दो..
क्योकि वह वही है
जो तुम हो...
ऐसे रोने वालो के साथ
तुम मत रो ।
गलत का साथ दे
हम भी
कमजोर हो जाते हैं।
कोई रास्ता नजर नही आता..
हम चुप हो जाते हैं।


चुप कमजोर भी रहता है
और झूठा भी..
अपनों से नाराज
और रूठा भी...।
इस लिए अपने को
सही से जोड़ लो।
अब यह चुप्पी तोड़ दो।